कुण्डलिनी क्या है? इसकी शक्ति क्या है, इसकी साधना, इसका उद्देश्य क्या है,
कुण्डलिनी-जागरण कैसे होते है और मनुष्य पर इस जागरण का क्या प्रभाव पड़ता है?
ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनके उत्तर वांछित है।
कुण्डलिनी साधना मनुष्य के आतंरिक रूपांतरण और जागरण की एक वैज्ञानिक प्रक्रिया है।
कुण्डलिनी जागरण का एक मात्र उद्देश्य है कि मनुष्य अपने आपको पहचाने, अपने जीवन को गहराई से समझे।
यह एक आध्यात्मिक यात्रा है जो मनुष्य को स्वयं अपने ही अस्तित्व के साथ करनी पड़ती है।
प्रत्येक मनुष्य के जानेंद्रिय के नीचे जहाँ से रीढ़ की हड्डी शुरू होती है, वहां एक चने के बराबर गड्ढा है जिसे कुण्ड कहते हैं। वही कुण्ड ऊर्जा का केंद्र है। इस कुण्ड का आकार त्रिकोण की तरह है । यहीं पर नाड़ियों का गुच्छा है जिसे योग में कंद कहते हैं।
इसी पर कुण्डलिनी सर्पिणी की तरह 3.5 चक्र की कुंडली मार कर , नीचे के ओर मुख करके, युगों-युगों से
बेखबर होकर गहरी नींद में सो रही है। जबतक यह सोई हुई है अज्ञान का मूल बनी हुई है।
कुण्ड में स्थित होने या कुण्डली के रूप के कारण ही इसे कुण्डलिनी पुकारा जाता है। सर्प के रूप के कारण सर्पिणी या चिति भी कहते हैं।
मनुष्य की रीढ़ की हड्डी भीतर से पोली है।उसके भीतर एक नाड़ी है जिसे योग में सुषुम्ना नाड़ी कहा जाता है। इसी के भीतर दो और नाड़ियाँ हैं--इड़ा और पिंगला, उसी प्रकार से जैसे बिजली के किसी मोटे तार के भीतर दो अलग अलग पतले तार होते हैं- जिनमें positive और negative विद्युत धाराएं प्रवाहित होती हैं।
सुषुम्ना नाड़ी बिलकुल खाली नहीं है , वहां शून्य है, इसीलिए उसे शून्य नाड़ी भी कहते है। शून्य अपने भीतर बहुत कुछ समेटे हुए होता है। इड़ा और पिंगला नाड़ियों में क्रमशः मन और प्राण का प्रवाह है। इसलिये इड़ा को मनोवहा और पिंगला को प्राणवहा नाड़ी कहते हैं।
कुण्ड के एक कोने पर इड़ा, एक पर पिंगला और एक पर सुषुम्ना की ग्रन्थियाँ हैं। हमारे शरीर का यह एक
महत्वपूर्ण स्थान है। जीवनी शक्ति का फैलाव सम्पूर्ण शरीर में इसी केंद्र से होता है। इसे मूलाधार चक्र कहते हैं। त्रिकोण योनि का प्रतीक है, इसलिए तांत्रिक इसे योनि चक्र भी कहते हैं।
यहीं से तीनो नाड़ियाँ एक साथ मिलकर मेरुदंड में से होकर ऊपर की ओर चली गई हैं।
ऊपर जा कर तीनों अलग अलग हो गई हैं।
इड़ा बाई कनपटी और पिंगला दाई कनपटी से होकर आज्ञा चक्र में मिल कर और तीनों प्रकार के मस्तिष्कों को पार कर ब्रह्म रंध्र से मिल गई है। इसी प्रकार सुषुम्ना नाड़ी भी खोपड़ी के पीछे से होकर ब्रह्म रंध्र से मिल गई है। विचार की तरंगें इसी ब्रह्म रंध्र के मार्ग से सुषुम्ना में प्रवेश कर तीसरे मस्तिष्क मेंदूला ablongata में पहुंचती हैं।
हमारे शरीर में ज्ञान तंतुओं के दो भाग हैं। पहला भाग मस्तिष्क और मेरुदंड के भीतर है और दूसरा भाग छाती,पेट और पेड़ू के भीतर है।
पहले भाग को सेरिबो स्पाइनल सिस्टम कहते हैं और दूसरे भाग को सिम्पैथेटिक सिस्टम कहते हैं। मनुष्य के भीतर इच्छाओं,भावनाओं का जन्म और व्यापार पहले भाग में और उसी प्रकार बुद्धि,पोषण,पाचन व्यापार दूसरे भाग में चलता रहता है।
शब्द,रस,रूप,गंध और स्पर्श की क्रिया व्यापार मस्तिष्क और मेरुदंड के ज्ञान तंतु करते हैं।विचार भी यहीं पैदा होते हैं।
मस्तिष्क के तीन भाग हैं--मुख्य मस्तिष्क, गौण
मस्तिष्क और अधो स्थित मस्तिष्क। मुख्य मस्तिष्क को सेरिब्रम ,गौण मस्तिष्क को सेरिबेलम कहते हैं और अधो स्थित मस्तिष्क को मेडुला ablongata कहते हैं। यह मेरुदंड के ऊपरी सिरे पर स्थित है। इसका आकर मुर्गी के अंडे के बराबर होता है। उसमें एक ऐसा द्रव भरा होता है जो अज्ञात है।
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अभीतक इस द्रव का पता नहीं लगा पाई है। योगी इसे सहस्त्रार कहते हैं। इसके ज्ञान तंतुओं का एक सिरा सुषुम्ना नाडी के मुख से मिला है और दूसरा ब्रह्म रंध्र में निकल रहता है जहाँ पर चोटी रखने की प्रथा है।
उस स्थान पर सुई के नोक के बराबर एक छिद्र है जिसे ब्रह्मरंध्र कहते हैं। ब्रह्म रंध्र के माध्यम से ब्रह्माण्ड के बिखरे अबक विचारों को व्यक्ति ग्रहण करता रहता है।
समर्थ सिद्धगुरु के अनुग्रह से सिद्धयोग ध्यान की क्रियात्मक प्रक्रिया के माध्यम से सबसे पहले कुंडलिनी का जागरण होता है, फिर उसका उत्थान होता है।
इसके बाद क्रम से चक्रों का भेदन होता हैं और अंत में आज्ञा चक्र में अपने सद्गुरु के चिन्मय स्वरुप का दर्शन
होता है। अंत में सहस्त्रार स्थित शिव से शक्ति का सामरस्य महा मिलन होता है।