भागवत में आनंद ही आनंद है क्योंकि श्रीकृष्ण पूर्ण आनंद स्वरूप हैं। संतों ने दो प्रकार के आनंद बताए- 1. साधन जन्य आनंद जो साधन से प्राप्त हो वह साधन जन्य आनंद कहलाता है। जैसे किसी को रसमलाई खाने में आनंद आता है तो किसी को नहीं। ठीक इसी प्रकार संसार की सभी वस्तुओं में अलग-अलग व्यक्ति के लिए समय-समय पर कम अधिक आनंद प्राप्त होता रहता है। किसी को बड़े जोर की भूख लगी हो, उसे रसगुल्ले खाने को दिए जायें तो पहले रसगुल्ले की अपेक्षा उत्तरोत्तर आनंद का ह्रास होता चला जाता है और एक समय पूर्णता की स्थिति को प्राप्त हो व्यक्ति रसगुल्लों से मोह त्याग देता है। कहने का भाव यह है कि हर वस्तु में हर समय हर मानव को एक जैसा आनंद प्राप्त नहीं होता और प्राप्त होने वाले आनंद में स्थायित्व भी नहीं होता है। 2. स्वयं सिद्ध आनंद यह आनंद बड़ा ही विलक्षण आनंद है। इस आनंद में वस्तु का अभाव होता है तो भी आनंद प्राप्त होता है, विपरीत परिस्थितियों में भी आनंद प्राप्त होता है। श्री शुकदेव बाबा के पास कुछ भी नहीं था फिर भी आनंद में निमग्न रहते थे। एक संत विपरीत स्थिति में कांटों की सेज पर भी आनंद का अनुभव करता है तथा साधनों के अभाव में भी निरंतर आनंद प्राप्त करता रहता है। परंतु परिपूर्ण आनंद तो श्रीकृष्ण दर्शन से ही मिलती है।
भगवान ने द्रौपदी की पुकार सुनते ही उस अक्षय पात्र में लगे हुए साग के एक तिनके को खा लिया, जिससे दुर्वासा ऋषि सहित सारी सृष्टि ही तृप्त हो गयी| भूख तृप्त होने पर दुर्वासा ऋषि ने पाण्डवों को “युद्ध में विजयी होने” का आशीर्वाद दे दिया| अर्जुन कह्ते हैं कि भगवान की कृपा से ही हम सब पाण्डव दुर्वासा ऋषि के शाप से बच पाये| दुर्वासा जी की सेवा की दुर्योधन ने और आशीर्वाद मिला पाण्डवों को, यह सब भगवान की ही कृपा थी| आज रथ, धनुष-बाण और अर्जुन भी वही है ,परंतु किसी में भी शक्ति नहीं है| पाण्डव-कुल में बहुत सी विशेषताएं हैं:- जैसे कि इस कुल में सभी भगवान के महान भक्त थे और नारियां तो महान थीं हीं|
भगवान के स्वधाम-गमन की बात सुनते ही कुंती ने अपने प्राण त्याग दिये थे| भगवान के स्वधाम-गमन और कुन्ती के देहावसान के बाद पाण्डवों ने परीक्षित जी को राजगद्दी पर बिठाया और स्वयं स्वर्गारोहण के लिये बद्रीनाथ जी की तरफ प्रस्थान किया| अब श्रीपरीक्षित जी हस्तिनापुर के सम्राट हुए| उन्होंने इरावती से विवाह किया| उनके जनमेजय आदि चार पुत्र हुए| उन्होंने अनेक यज्ञ कराये| वे प्रजा को प्राणों के समान प्रिय मानते थे|
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